Tag: #vrindawan
जन्माष्टमी महोत्सव 19/8/2022 को मनाया जाएगा , हर बार दो उत्सव मनाए जाते हैं जानिए इसका क्या कारण हैं?

पंचांग के अनुसार हर बार दो उत्सव मनाए जाते हैं। जानिए क्यों मनाए जाते हैं?
स्मार्त एवं वैष्णव में भेद
व्रत-उपवास आदि करने वालों को ‘वैष्णव’ व ‘स्मार्त’ में भेद का ज्ञान होना अतिआवश्यक है। हम यहां ‘वैष्णव’ व ‘स्मार्त’ का भेद स्पष्ट कर रहे हैं।
‘वैष्णव’- जिन लोगों ने किसी विशेष संप्रदाय के धर्माचार्य से दीक्षा लेकर कंठी-तुलसी माला, तिलक आदि धारण करते हुए तप्त मुद्रा से शंख-चक्र अंकित करवाए हों, वे सभी ‘वैष्णव’ के अंतर्गत आते हैं।
‘स्मार्त’- वे सभी जो वेद-पुराणों के पाठक, आस्तिक, पंच देवों (गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य व दुर्गा) के उपासक व गृहस्थ हैं, ‘स्मार्त’ के अंतर्गत आते हैं।
कई पंडित यह बता देते हैं कि जो गृहस्थ जीवन बिताते हैं वे स्मार्त होते हैं और कंठी माला धारण करने वाले साधु-संत वैष्णव होते हैं जबकि ऐसा नहीं है जो व्यक्ति श्रुति स्मृति में विश्वास रखता है। पंचदेव अर्थात ब्रह्मा , विष्णु , महेश , गणेश , उमा को मानता है , वह स्मार्त हैं
प्राचीनकाल में अलग-अलग देवता को मानने वाले संप्रदाय अलग-अलग थे। श्री आदिशंकराचार्य द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि सभी देवता ब्रह्मस्वरूप हैं तथा जन साधारण ने उनके द्वारा बतलाए गए मार्ग को अंगीकार कर लिया तथा स्मार्त कहलाये।
जो किसी वैष्णव सम्प्रदाय के गुरु या धर्माचार्य से विधिवत दीक्षा लेता है तथा गुरु से कंठी या तुलसी माला गले में ग्रहण करता है या तप्त मुद्रा से शंख चक्र का निशान गुदवाता है । ऐसे व्यक्ति ही वैष्णव कहे जा सकते है अर्थात वैष्णव को सीधे शब्दों में कहें तो गृहस्थ से दूर रहने वाले लोग।
वैष्णव धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पांचरात्र मत है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या ‘भगवत’ कहा गया है और भगवत के उपासक भागवत कहलाते हैं।
इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं।
‘महाभारत’के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है।
नारद पांचरात्र के अनुसार इसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का ‘रात्र’ अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है।
‘ईश्वरसंहिता’, ‘पाद्मतन्त’, ‘विष्णुसंहिता’ और ‘परमसंहिता’ ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है।
‘शतपथ ब्राह्मण’ के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। इस धर्म के ‘नारायणीय’, ऐकान्तिक’ और ‘सात्वत’ नाम भी प्रचलित रहे हैं।
प्रायः पंचांगों में एकादशी व्रत , जन्माष्टमी व्रत स्मार्त जनों के लिए पहले दिन और वैष्णव लोगों के लिए दूसरे दिन बताया जाता है । इससे जनसाधारण भ्रम में पड जाते हैं। दशमी तिथि का मान 55 घटी से ज्यादा हो तो वैष्णव जन द्वादशी तिथि को व्रत रखते हैं अन्यथा एकादशी को ही रखते है। इसी तरह स्मार्त जन अर्ध्दरात्री को अष्टमी पड रही हो तो उसी दिन जन्माष्टमी मनाते हैं। जबकी वैष्णवजन उदया तिथी को जन्माष्टमी मनाते हैं एवं व्रत भी उसी दिन रखते हैं।
क्यों करते मेरा -मेरा , यह सब हैं रेन बसेरा

एक महात्मा जी कही जा रहे थे,,मार्ग में उन्होंने एक स्थान पर दो व्यक्तियों को ऊँची आवाज में बोलते हुए सुना, दोनों ही हाथों में लठ लिए हुए एक दूसरे के प्राण लेने को तैयार दिखाई दे रहे थे। एक कहता यह भूमि मेरी हैं और मैं इसका स्वामी हूँ, जबकि दूसरा उस भूमि को अपना बतला रहा था।
उस भूमि पर अपना अपना स्वामित्व जतलाने के लिए दोनों ही क्रोध से लाल पीले हो रहे थे. अपने अपने पक्ष में दलीले दे रहे थे. संत महात्मा तो स्वभाव से ही दयालु एवंम परोपकारी होते हैं, सदैव सबका ही भला चाहते हैं। उन्होंने मन ही मन विचार किया ये दोनों लड़ाई झगड़ा करके व्यर्थ में ही अपने प्राण ग्वानें पर तुले हुए हैं। अतः उन्हें समझा बुझलाकर शांत करने एवं आपस में समझौता कराने का प्रयास करना चाहिए। यह सोचकर वे उनके निकट गये और उन्हें संबोधित करते हुए बोले- हे भद्र पुरुषों ! तुम लोग कौन हो और आपस में झगड़ा क्यों कर रहे हो?
महात्मा जी को देखकर उनमें से एक व्यक्ति बोला- महात्मन ! हम दोनों भाई हैं. हमारे पिता ने मरते समय अपनी सम्पति का जो बंटवारा किया था, उसके अनुसार इस भूमि का मालिक मैं हूँ, फिर भी यह व्यर्थ में झगड़ा कर रहा हैं, दूसरा व्यक्ति तत्काल चिल्ला उठा- महाराज यह बिलकुल झूठ बोल रहा हैं, यह भूमि इसके भाग में नही बल्कि मेरे भाग में आती हैं, इसलिए इसका असली मालिक मैं हूँ। यह झूठमुठ ही इसे अपनी बतलाकर और मुझे डरा धमकाकर इसे हड़पना चाहता हैं।
महात्मा जी ने शांत भाव से फरमाया- तुम दोनों ही इस भूमि को अपना कहते हो और अपने अपने पक्ष में दलीले देते हो, ऐसे में इसका निर्णय कभी नही होगा, इसलिए अच्छा यही रहेगा कि जिस भूमि के लिए तुम मरने मारने को उतारू हो, उससे ही यह पूछ हो कि उनका असली मालिक तुम दोनों में से कौन हैं? वह स्वयं ही इस बात का निर्णय कर देगी, कुछ समय तक दोनों ही महात्मा जी के मुह की ओर ताकते रहे फिर बोले- किन्तु यह कैसे संभव हैं ? भूमि भी कभी बोलती हैं.
महात्मा जी ने उत्तर दिया, हाँ वह अवश्य बोलती हैं, परन्तु उसकी आवाज तुम लोग नही सुन सकते हो, हम सुन सकते हैं, किन्तु यह बताओं कि भूमि जो निर्णय देगी, क्या तुम दोनों को वह मान्य होगा?
दोनों भाई इस बात पर राजी हो गये. तब महात्मा जी बोले- मुझे बहुत जोरों की भूख लगी हैं पहले मुझे भोजन कराओं, वे बोले भूमि का निर्णय हो जाए फिर आपकों डटकर खाना खिलाएगे। महात्मा जी ने कहा- भूमि का निर्णय तो हो ही जाएगा,,वह कही भागे थोड़ी ही जा रही हैं. पहले भोजन हो जाए, ताकि मन मस्तिष्क ठिकाने आ जाए। इसलिए तुम दोनों अपने घर से भोजन ले आओं, तब तक हम यही बैठे हैं। यह कहकर महात्मा जी एक पेड़ की छांव में बैठ गये।
दोनों भाई घर गये और अपने अपने घर से भोजन बनवाकर ले आए। महात्मा जी ने उन दोनों को बैठने के लिए कहा, तत्पश्चात उन्होंने भोजन के तीन भाग किए और दोनों भाइयों को भोजन करने का आदेश देकर भोजन करने लगे, इस प्रकार ऊपर की सब बातचीत तथा भोजन करने में दो घंटे लग गये ।
महात्मा जी ने इस समस्त कार्यवाही का उद्देश्य केवल यही था कि दोनों का क्रोध कुछ कम हो जाए, ताकि उन्हें समझाया बुझाया जा सके और हुआ भी यही, दोनों जब भोजन से निवृत हुए तो काफी शांत थे। उन्होंने महात्मा जी के चरणों में विनती की- महाराज ! यह भूमि तो कुछ बोलेगी नही इसलिए आप ही हमारा निर्णय कर दीजिए।
महात्मा जी ने कहा हम लोग भूमि से पूछकर निर्णय करते हैं, यह कहकर उन्होंने अपने कान भूमि के साथ लगाया, मानों कुछ सुनने का प्रयत्न कर रहे हो. कुछ देर तक वे भूमि के साथ कान लगाए रहे, फिर सीधे बैठ गये और गंभीर वाणी में बोले- यह भूमि तो कुछ और ही कह रही हैं.
दोनों भाई बोले महाराज ! भूमि क्या कह रही हैं? महात्मा जी ने कहा- यह भूमि कहती हैं, कि दोनों ही व्यर्थ ही मेरे ऊपर अधिकार जमाने के लिए झगड़ा कर रहे हैं, क्योंकि मैं इन दोनों में से किसी की नही हूँ। ये दोनों अवश्य मेरे हैं मैंने इनकी कई पीढ़ियों को पाला हैं और जाते हुए भी देखा हैं।
महात्मा जी की बात सुनकर दोनों भाई बड़े लज्जित हुए और महात्मा जी के चरणों में गिर पड़े, महात्मा जी ने लोहा गर्म देखकर चोट की और उन्हें समझाते हुए कहा- तनिक विचार करो कि जिस भूमि के लिए तुम लोग आपस में लड़ रहे हो, क्या वह आज तक किसी की बनी हैं, जो तुम लोगो की बन जाएगी, मनुष्य मेरी मेरी करके व्यर्थ यत्न करता हैं। यह नही सोचता कि इनमें से कुछ भी मनुष्य का अपना नही हैं, बड़े बड़े छत्रपति राजा भी इन्हें अपना अपना कहकर चले गये, परन्तु साथ क्या ले गये? कुछ भी नही. वे खाली हाथ संसार में आए थे वैसे ही खाली हाथ इस संसार से चले गये।
तुम भूमि के इस छोटे से टुकड़े के लिए अपने अनमोल जीवन को व्यर्थ करने पर तुले हुए हो? यह भूमि न तुम्हारी हैं न तुम्हारी बनेगी, भूमि ही क्या संसार के जितने भी पदार्थ हैं, धन सम्पति हैं, मकान आदि हैं, इनमें से कुछ भी तुम्हारा नही हैं। तुम्हारी अपनी वस्तु तो केवल भजन भक्ति और तुम्हारे अच्छे कर्म हैं, जो तुम्हारे परलोक के संगी साथी हैं, शेष सब कुछ तो तुम्हारा यही रह जाएगा. इसलिए आपस में लड़ने झगड़ने और मनुष्य जन्म के मूल्यवान समय को व्यर्थ करने की अपेक्षा जीवन को अच्छे कर्मों और नाम सुमिरण में लगाओं ताकि तुम्हारा लोक परलोक संवर जाएगा।
दोनों महात्मा जी के चरणों में गिरकर अपनी गलती की क्षमा मांगी. उसी दिन से सबके साथ प्रेम का व्यवहार करते हुए अपने समय को भजन भक्ति में लगाते हुए अपने जीवन सफल करने लगे।
सद गुरुदेव
भगवान की जय
Check out this post… “दैनिक पंचांग “.
Today social icons are uploaded
श्री श्री 1008 परम पूज्य जगतगुरु द्वाराचार्य मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेंद्र दास जी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त करके उनका माल्यार्पण करते हुए ।
श्री श्री 1008 परम पूज्य जगतगुरु द्वाराचार्य मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेंद्र दास जी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त करके उनका माल्यार्पण करते हुए ।

